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कृषि और ग्रामीण परिपे्रक्ष्य में म.प्र. का बजट ढपोरशंखी

मध्यप्रदेश सरकार के वर्ष 2017-18 के लिए प्रस्तुत बजट में खेती की आय दुगनी करने की कोई झलक दिखाई नहीं दे रही। इसके विपरीत कृषि क्षेत्र के लिए दी जाने वाली राशि पिछले वर्ष के आवंटन की तुलना में 256 करोड़ रुपए कम कर दी गई है। पिछले वर्ष इस मद में 4797 करोड़ रु. दिये गये थे और आगामी वित्तीय वर्ष में 4541 करोड़ रु. खर्च किए जाएंगे। केन्द्रीय बजट में कृषि क्षेत्र में बजट राशि बढ़ाई गई है। केन्द्र से प्राप्त वित्तीय आयोजन को ही राज्य सरकार ने विभिन्न मदों में अपनी ओर से बताकर बाजीगरी की है। चाहे सिंचाई का क्षेत्र हो, ग्रामीण आवास योजना हो, मनरेगा अथवा ग्रामीण सड़क योजना आदि केवल केन्द्र से प्राप्त धनराशि का सहारा पाकर ये सभी योजनाएं कार्यान्वित की जा रही हैं जिन्हें बढ़ा-चढ़ाकर ‘सरकार’ वाह-वाही पाने के लिए प्रयासरत है।

लक्ष्य से पीछे योजनाएं
प्रदेश में जहां तक इन योजनाओं के कार्यान्वयन का प्रश्न है, इनकी गति लक्ष्य से काफी पीछे है। केन्द्र सरकार द्वारा किसानों के लिए जारी विभिन्न सहायता योजनाओं की राशि भी पूरी तौर पर खर्च नहीं हो पा रही है। इसका प्रमुख कारण ग्रामीण क्षेत्रों में बिना तैयारी के ई गवर्नेन्स योजना को लागू करना है। प्रदेश में कृषि, उद्यानिकी विभागों में मैदानी स्तर पर अधिकारियों की कमी तो है ही इसके साथ ही इन अधिकारियों के प्रति किसानों का संबंध इन लोगों से कोई प्रत्यक्ष लाभ या सुविधा नहीं मिलने के कारण अपरिचय, संवादहीनता की ओर बढ़ रहा है। ग्रामीण कृषि अधिकारीगणों पर इतर विभागों के काम का बोझ है व इसके साथ ही इन अधिकारियों का काम कृषि प्रसार का न होकर राजनेताओं की अगुआई में होने वाली कृषि प्रदर्शनियों में ग्रामीणों की भीड़ जुटाने तक सीमित हो गया है।

पटवारी और ई-गवर्नेन्स
इसी प्रकार राजस्व विभाग के लिए भी वित्तीय आवंटन पिछले वर्ष 4858 करोड़ के स्थान पर इस वर्ष 3785 करोड़ कर 1073 करोड़ की कटौती कर दी है, इसका प्रमुख कारण प्राकृतिक आपदा नहीं होना बतलाया है जबकि सच्चाई यह है कि पूरे प्रदेश का कृषक समुदाय राजस्व विभाग से त्रस्त है। पटवारियों से लेकर तहसीलदार तक के पद खाली पड़े हैं, राजस्व न्यायालयों में मुकदमों का अंबार है, राजस्व विभाग के रिकार्ड का डिजिटलाईजेशन का काम बाकी है, इस रिकार्ड के सही रखरखाव के अभाव में धांधली बढ़ रही है, ग्रामीण हैरान परेशान हैं। राजधानी भोपाल में ही वर्ष 2015 के बाद से कृषि भूमि के खसरे-खतौनी कम्प्यूटर पर अद्यतन नहीं हुए हैं। अधिकांश गिरदावर, पटवारियों को इलेक्ट्रॉनिक स्टेशन टोटल मशीन चलाना नहीं आता, निजी क्षेत्र की मदद से जमीनों की गलत-सलत नपाई हो रही है। किसानों पर निजी क्षेत्र की मदद लेने के कारण व्यय भार बढ़ रहा है, अपना दुखड़ा किससे कहे? ई-गवर्नेन्स की धमक किसानों पर भारी पड़ रही है। पारिवारिक भूमि के हक त्याग पर लगने वाला पंजीयन शुल्क 2.5 प्रतिशत से घटा कर 0.5 प्रतिशत कर शासन ने अपनी भूल सुधार की है परन्तु यह अब भी गरीब किसानों पर भारी है। पूर्ववर्ती व्यवस्था में मात्र एक शपथ पत्र के आधार पर परिजनों के मध्य हक त्याग हो जाता था अनावश्यक मुकदमेबाजी नहीं होती थी। सच्चाई तो यह है कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर शासन ने मनमाने वैधानिक बदलाव कर आपसी सामंजस्य का ताना-बाना खोखला कर दिया है। पैतृक कृषि भूमि पर शादी-शुदा बहन को हिस्सेदार बनाकर राजनेताओं ने अपनी मूढ़ता का ही परिचय दिया है। शादी-शुदा बहन अपने पति के साथ ससुराल में रहेगी अथवा मायके में खेती का हिस्सा बंटा कर खेती करेगी? अथवा अपने हिस्से में आई जमीन को बेचने के लिए भाई-भौजाई से अपने स्नेह संबंध संघर्ष और प्रतिद्वंदिता में बदल लेगी।
सरकारी संस्थाओं की जमीनों पर खतरा
इस बजट में संसाधन जुटाने के लिए शासकीय संस्थाओं की खाली जमीनों को बेचने की योजना है, इससे निश्चय ही कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय, बीज निगम के कृषि फर्मों पर खतरे का साया मंडराने लगा है। इन्दौर कृषि महाविद्यालय की जमीन पर पहले से ही स्थानीय जिला प्रशासन अपनी नजरें गड़ाए हुए हैं, कृषि वैज्ञानिक महाविद्यालय के शिक्षक, छात्र विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और अब शासन ने अपने मंतव्य स्पष्ट कर इसके मुफ्त अधिग्रहण का रास्ता आसान कर दिया है।
किसानों को बिजली कंपनियों का करंट
ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थाई पंप कनेक्शनों को स्थाई करने के लिए 850 करोड़ रु. का बजट प्रावधान भले ही हो लेकिन खेत में एक भी बिजली का खंभा लगाने, तार खींचने, ट्रांसफर्मर लगाने के लिए विद्युत वितरण कंपनियां किसानों से अधिकारिक रूप से रुपये वसूलने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। सरकारी बजट आयोजन के बावजूद किसान के लिए मुफ्त सुविधा नहीं है। रही बात कृषि पंपों के लिए विद्युत शुल्क में अनुदान सहायता की तो विद्युत वितरण कंपनियां किसानों के साथ-साथ शासन से भी ठगी कर रही है। पांच हार्स पावर के पंपों को जबरिया सात – आठ हार्स पावर का बताकर बिल वसूल रही है। चार महीने के अस्थाई पम्प कनेक्शन की राशि बारहमासी कनेक्शन भी अधिक है।

अनुदान से पल रही संस्थाएं
कृषि यंत्रीकरण के लिए राज्य किसानों को जो अनुदान सहायता केन्द्र सरकार के सहयोग से दे रही है उस अनुदान सहायता की आधी धनराशि प्रदेश शासन द्वारा संचालित कृषि उद्योग निगम ही महंगे कृषि यंत्र बेचकर हड़प जाता है और निजी क्षेत्र के निर्माताओं, विक्रेताओं की मिलीभगत से यही कार्य उद्यानिकी विभाग भी कर रहा है। सहकारी क्षेत्र में कार्यरत बीज उत्पादक संस्थायें भी केवल शासकीय अनुदान सहायता हड़पने के लिए ही राजनेताओं के संरक्षण में कार्यरत हैं। आवश्यक वित्तीय सहायता के अभाव में प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालय अपनी अनुसंधान योजनाओं को विस्तार नहीं दे पा रहे और सक्षम विशेषज्ञों के मौन से ‘जीरो बजट कृषि’ जैसी योजनाओं का ढिंढोरा पीटकर कृषकों को आत्महत्या का रास्ता दिखलाया जा रहा है।
मध्यप्रदेश में सरकार लगातार कर्ज ले रही हैं। लोक-लुभावन नीतियां लागू कर आम जनता को ‘मामूÓ बनाकर अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए प्रयासरत हैं। शासकीय भूमि पर बढ़ते अतिक्रमण, अवैध खनन की अनदेखी अथवा इन्हें वैध करने का आश्वासन देकर भले ही अपने राजनैतिक मंसूबों की पूर्ति करने में संलग्न हों लेकिन भविष्य में इस बेलगाम होती व्यवस्था को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण एवं असंभव कार्य होगा। केवल लफ्फाजी, प्रचार माध्यमों में बड़े-बड़े विज्ञापन, अपनी चमक-दमक बनाने के आयोजन और प्रधानमंत्री मोदी की छत्रछाया में भले ही वर्तमान शासन अपनी सफलता के ढोल पीटे परन्तु अगले चुनाव में बढ़ते ऋण और राजकोषीय घाटे के कारण नये-नये आयोजनों की केवल थोथी घोषणा करते रहने से आम जनता को ‘मामूÓ बनाये रखना आसान नहीं होगा। यह जनता है, सब जानती है।

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