किसान की बिखरी कडिय़ां
8 नवम्बर 2016 के बाद भले ही हम सीना ठोंक कर, छाती चौड़ी कर, ताली बजा-बजाकर कहते रहें कि केवल 50 दिन दे दो पर देश के 80 करोड़ किसानों को पिछले 32 महीनों में क्या दे दिया? फसल की लागत में 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर समर्थन मूल्य देने की बातें भी केवल चुनावी वादे थे?
पिछली 8 नवम्बर से सब्जी उगाने वाले किसान की आमदनी 30 से 40 प्रतिशत घट चुकी है। अंडा उत्पादकों को करोड़ों का घाटा हो चुका है, बैंक कृषि क्षेत्र को लगभग 65 प्रतिशत ऋण आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। फसल बीमा, प्राकृतिक आपदा से राहत की स्थिति दयनीय है और अधिकांशत: राजनीति के मोहरों पर टिकी रहती है। सिंचाई में निवेश नगण्य है।
वैसे भी भारत सरकार ने गत 3 दिसम्बर को मान लिया कि रबी का उत्पादन 10 प्रतिशत कम होगा। पर विशेषज्ञों के मुताबिक ये कमी 30 प्रतिशत से कहीं अधिक होगी।
मध्य प्रदेश की 90 प्रतिशत मंडियां बंद रहीं और शेष 10 प्रतिशत में भी 10 प्रतिशत काम हो पाया। नगदी के अभाव में व्यापारियों ने किसानों से सब्जी, फल, फूल खरीदी बंद कर दी। छोटे दुकानदारों, हम्मालों, ट्रक ड्रायवरों, मजदूरों में एक तरह का विद्रोह का भाव है। खाद, बीज, व्यापारी भी घटती आमदनी, रुका पैसा आदि समस्याओं से जूझ रहे हैं। किसान संगठन के वरिष्ठ नेता श्री चेंगल रेड्डी इस नोटबंदी से किसानों के ऊपर हुए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चोट से आहत हैं। उनके मुताबिक देश के 80 करोड़ किसानों में 90 प्रतिशत नकदी की अपनी जरूरतों के लिए कृषि क्षेत्र के छोटे असंगठित व्यापार, क्षेत्र परस्पर विश्वास की बुनियाद पर निर्भर हैं। कटाई के बाद फसल व्यापारी के पास जाती है और उधारी काटकर किसान को नगद रकम मिल जाती थी।
किसान अब आशंकित हैं कि इन आर्थिक कफ्र्यू जैसे हालात में उसकी आमदनी की बिखरी कडिय़ां कैसे जुड़ेंगी। अशिक्षित, असंगठित और सामाजिक दृष्टि से भी कटे रहने वाले किसान घटी आमदनी और अपर्याप्त अवसरों के रहते नकदी की किल्लत से आने वाली चुनौतियों का सामना कैसे कर पाएंगे।