किसानों का असंतोष ! मुख्यमंत्री की हवा-हवाई घोषणाएं
(श्रीकान्त काबरा, मो.: 9406523699)
म.प्र. सरकार की कथित किसान हितैषी घोषणा कि ‘कृषकों को खसरा -खतौनी की नकल दी जाएगीÓ यह भी छलावा है। पूर्व में सरकार द्वारा वितरित खसरा – खतौनी की नकलें बिना शासकीय अधिकारी के प्रमाणीकरण के, बिना स्टाम्प टिकिट लगे केवल रद्दी कागज का टुकड़ा था, इसकी कोई वैधानिक मान्यता ही नहीं है। यदि बैंक पास बुक या रेलवे टिकिट के समान कम्प्यूटर सिस्टम से निकली खसरा खतौनी की प्रतियां बिना सरकारी सील, सिक्के, स्टाम्प के प्रमाणिक मानी जायें तभी इनके वितरण की सार्थकता है। वस्तुत: मध्यप्रदेश में किसानों के मध्य बढ़ते अंसतोष का मूल कारण मुख्यमंत्री द्वारा की गई किसान हितैषी घोषणाओं का लचर क्रियान्वयन है।
मध्यप्रदेश में कृषि और उनसे संबंधित विभागों का शीर्ष नियंत्रण जानकार विशेषज्ञों द्वारा नहीं किया जाता। विशेषज्ञों की बजाय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी इन पदों पर विराजमान हैं जिन्हें न खेती किसानी का ज्ञान है और न ही किसानों को होने वाली कठिनाईयों, परेशानियों से उन्हें कोई मतलब है जमीनी वास्तविकताओं से अपरिचित केवल आंकड़ों की बाजीगरी में उलझे ई गवर्नेस के पक्षधर एअरकंडीशन कक्षों में बैठे अधिकारियों की कार्यप्रणाली से जटिलतायें उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है, इन अधिकारियों को केवल मुख्यमंत्री के समक्ष प्रभावशाली ढंग से विवरण प्रस्तुत कर अपने नंबर बढ़वाने में ही सार्थकता नजर आती है।
किसानों के बढ़ते असंतोष का भी यह एक प्रमुख कारण है। ज्ञान चौपाल और हाट बाजार बनाने की घोषणा भी हास्यास्पद है। बरसों से कृषि विभाग और नेतागण किसानों को थोथा ज्ञान ही बांट रहे हैं। इसके चलते भले ही कृषि उत्पादन बढ़ा हो परंतु किसान तो इसके बावजूद फटेहाल और आत्महत्या को विवश हो रहा है, रही बात हाट बाजार की तो वह भी सड़क किनारे कहीं भी सज जाता है, राजधानी भोपाल में ही अस्थाई रूप से साप्ताहिक हाट बाजार लग ही रहे हैं व चौथ वसूली कर बड़े नेताओं के संरक्षण में छुट भैया नेताओं ने शहर में जगह-जगह हाथठेलों पर अपनी फल-सब्जी की दुकानें सजा रखी हैं।
किसान मूलत: उत्पादक है, वह व्यापारी नहीं है, उसे बाजार लगाने से क्या मतलब है यह काम तो बिचौलियों का है और बड़े व्यापारी हाट बाजार में नहीं वरन् शोरूम खोलकर व्यापार करते हैं। किसानों से औने-पौने दामों में खरीद कर बड़े-बड़े माल्स में खुलेआम कृषि उत्पाद बिक ही रहे हैं। रही बात ‘अमूल’ की तर्ज पर दूध क्रय के लिये नीतिगत परिवर्तन की घोषणा की तो दुग्ध उत्पादक और पूर्व में कार्यरत म.प्र. गौसेवा आयोग वर्षों से इसकी मांग कर रहे थे लेकिन म.प्र. दुग्ध संघ और पशुपालन विभाग के अधिकारी मिलकर इस व्यवस्था को लागू करने से दुग्ध संघ के घाटे में जाने की संभावना मानकर वर्षों से अनसुना करते रहे। क्या मुख्यमंत्री जी को मालूम है कि वर्षों से गायों की नस्ल सुधार योजना के अंतर्गत नस्ल सुधार के नाम पर विदेशी ब्रीड से वर्ण संकरीकरण का कार्यक्रम ही दूसरी-तीसरी पीढ़ी में गायों को बढ़ती बीमारी और घटती उत्पादकता के कारण बूचडख़ाने पहुंचा रहा है और आप गौरक्षा का ढोल पीट रहे हैं।
मध्यप्रदेश में वर्ष 2004 में किसानों द्वारा लिया जाने वाला कृषि ऋण मात्र 1267 करोड़ रु. था जो वर्तमान वित्तीय वर्ष 2017-18 में बढ़कर उन्नीस हजार करोड़ रु. हो गया है। कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि के बावजूद किसानों को स्वावलंबी बनाने की बजाय कर्ज के मकडजाल में उलझाने की नीति रही है। ऋषिचार्वाक कहते हैं घी पियो, उधार करके घी पियो, मरने के बाद किसे चुकाना है यह देह भस्मीभूत हो जाएगी। पियो-पियो खूब पियो, जब तक होश में रहो बेसुध होने तक पियो और होथ में आओ तब फिर पीने लगोÓ इस पर शासन अक्षरश: अमल कर रहा है। वोट बैंक बनाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग करते हुए शासन का खजाना लुटाने में जुटे प्रयासों ने ग्रामीणों को अलालही नहीं, भस्मासुर बना दिया है, शासन का खजाना लुटाते-लुटाते खाली हो गया है पर भस्मासुर की आस पूरी नहीं हो रही है और अब यह ‘मामाÓ को भी लीलने को आतुर है।
केवल कर्ज माफी और उचित मूल्य न मिलना ही ग्रामीण किसानों के असंतोष का कारण नहीं है। इसका मूल कारण प्रशासनिक व्यवस्था में बढ़ता राजनैतिक हस्तक्षेप तथा इसके फलस्वरूप उत्तरदायित्वविहीन मनमानी प्रशासनिक व्यवस्था है। शिवराज में अधिकारी मस्त और आम जनता पस्त है। विपक्ष भी गुणात्मक आलोचना और सुझाव देने की बजाय केवल अवसरवादी भड़काऊ राजनीति में जुटा है, प्रदेश में सरकार चलती हुई दिखाई दे रही है। किसी ने ठीक ही कहा है-
‘सरकार का अर्थ है सरकाना
काम आज का कल,
कल का परसों तक
या फिर एक दूसरे की,
कुर्सी को ही सरकाते हैं
सरकाना उनकी शान है
यही सरकार की पहचान है।‘