औषधीय पौधा एलोवेरा
घृतकुमारी जिसे ग्वारपाठा एवं एलोवेरा के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन समय से ही चिकित्सा जगत में बीमारियों को उपचारित करने के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। घृतकुमारी के गुणों से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। हम सभी ने सीधे या अप्रत्यक्ष रुप से इसका उपयोग किसी न किसी रुप में किया है। घृतकुमारी में अनेकों बीमारियों को उपचारित करने वाले गुण मौजूद होते हैं। इसीलिए ही आयुर्वेदिक उद्योग में घृतकुमारी की मांग बढ़ती जा रही है।
मृदा एवं जलवायु: प्राकृतिक रूप से इसके पौधे को अनउपजाऊ भूमि में उगते देखा गया है। इसे किसी भी भूमि में उगाया जा सकता है। परन्तु बलुई दोमट मिट्टी में इसका अधिक उत्पादन होता है।
उन्नतशील प्रजातियाँ: केन्द्रीय औषधीय सगंध पौधा संस्थान के द्वारा सिम-सीतल, एल- 1,2,5 और 49 एवं को खेतों में परीक्षण के उपरान्त इन जातियों से अधिक मात्रा में जैल की प्राप्ति हुई है। इनका प्रयोग खेती (व्यवसायिक) के लिए किया जा सकता है।
पौध रोपाई:
भूमि की एक-दो जुताई के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बना लें। इसके उपरान्त ऊँची उठी हुई क्यारियों में 50&50 सेमी की दूरी पर पौधों को रोपित करें। पौधों की रोपाई के लिए मुख्य पौधों के बगल से निकलने वाले छोट छोटे पौधे जिसमें चार-पाँच पत्तियाँ हों, का प्रयोग करें। लाइन से लाइन की दूरी 50 एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 रखने पर 45,000-50,000 पौधों की आवश्यकता रोपाई के लिए होगी। सिचिंत दशाओं में इसकी रोपाई फरवरी माह में करें।
खाद एवं उर्वरक: 10-12 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद पौधे के अच्छे विकास के लिए आवश्यक है। 120 किग्रा. यूरिया, 150 किग्रा. फास्फोरस एवं 33 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नाइट्रोजन को तीन बार में एवं फास्फोरस व पोटाश को भूमि की तैयारी के समय ही दें। नाइट्रोजन का पौधों पर छिड़काव करना अच्छा रहता है।
सिंचाई: पौधों की रोपाई के बाद खेत में पानी दें। (घृतकुमारी) की खेती में ड्रिप एवं स्ंिप्रकलर सिंचाई अच्छी रहती है। प्रयोग द्वारा पता चला है कि समय से सिंचाई करने पर पत्तियों में जैल का उत्पादन एवं गुणवत्ता दोनों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार वर्ष भर में 3-4 सिंचाईओं की आवश्यकता होती है।
रोग एवं कीट नियन्त्रण: समय-समय पर खेत से खरपतवारों को निकालते रहें। खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा बढऩे पर खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊँची उठी हुई क्यारियों की समय समय पर मिट्टी चढ़ाते रहें। जिससे पौधों की जड़ों के आस-पास पानी के रूकने की सम्भावना कम होती है एवं साथ ही पौधों को गिरने से भी बचाया जा सकता है। पौधों पर रोगों का प्रकोप कम ही होता है। कभी-कभी पत्तियों एवं तनों के सडऩे एवं धब्बों वाली बीमारियों के प्रकोप को देखा गया है। जो कि फफूंदी जनित बीमारी है। इसकी नियंत्रण के लिए मैंकोजेब, रिडोमिल, डाइथेन एम-45 का प्रयोग 2.0-2.5 ग्राम/ली. पानी में डालकर छिड़काव करने से किया जा सकता है।
फसल की कटाई एवं उपज:
रोपाई के 10-15 महिनों में पत्तियाँ पूर्ण विकसित एवं कटाई के योग्य हो जाती हैं। पौधे की ऊपरी एवं नई पत्तियों की कटाई नहीं करें। निचली एवं पुरानी 3-4 पत्तियों को पहले काटना/तोडें। इसके बाद लगभग 45 दिन बाद पुन: 3-4 निचली पुरानी पत्तियों की कटाई/तुड़ाई करें। इस प्रकार यह प्रक्रिया तीन-चार वर्ष तक दोहराई जा सकती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग प्रतिवर्ष 50-60 टन ताजी पत्तियों की प्राप्ति होती है। दूसरे एवं तीसरे वर्ष 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।
कटाई उपरान्त प्रबंन्धन एवं प्रसंस्करण :
विकसित पौधों से निकाली गई, पत्तियों को सफाई करने के बाद स्वच्छ पानी से अच्छी तरह से धो लिया जाता है, जिससे मिट्टी निकल जाती है। इन पत्तियों के निचले सिरे पर अनुप्रस्थ काट लगा कर कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं, जिससे पीले रंग का गाढ़ा रस निकलता है। इस गाढ़े रस को किसी पात्र में संग्रह करके वाष्पीकरण की विधि से उबाल कर, घन रस क्रिया द्वारा सुखा लेते है। इस सूखे हुए द्रव्य को मुसब्बर अथवा सकोत्रा, जंजीवर, केप, बारवेडोज एलोज एवं अदनी आदि अन्य नामों से से विश्व बाजार में जाना जाता है। (घृतकुमारी) की जातिभेद एवं रस क्रिया में वाष्पीकरण की प्रक्रिया के अन्तर से मुसब्बर के रंग, रूप, तथा गुणों में भिन्नता पाई जाती है।