आखिर कुनबा डूबा क्यूं…?
हाल ही में प्रदेश के मुखियाश्री शिवराज सिंह ने मंत्रालय में एक बैठक बुलाई थी। इस बैठक में प्रदेश में व्याप्त सूखे के वर्तमान हालात पर चर्चा हुई। खंडवा, बड़वानी, दमोह, बैतूल,नीमच के जिला अधिकारियों ने इन जिलों में सूखे के कारण फसलों की दुर्गति की वास्तविक स्थिति का चित्रण करती हुई रपट भेजी इस पर जल संसाधन विभाग के प्रमुख सचिव ने फरमाया कि इन जिलों में तालाब लबालब हैं ऐसे में सूखे की रपट सरासर गलत है। जल संसाधन विभाग के प्रमुख सचिव के सुर में अन्य अधिकारियों ने भी शउ्र मिला दिया, फिर क्या था, प्रदेश के मुखिया भी भड़क गये और कह उठे कि ‘गलत रिपोर्ट न भेजें कलेक्टर।
वैसे मौसम केन्द्र भोपाल से जारी म.प्र. में वर्षा की स्थिति में बड़वानी में केवल 440 मि.मी. वर्षा हुई जबकि 560 मि.मी. होना था। याने 21 प्रतिशत कम वहीं दमोह में सामान्य वर्षा होती है 974 मिमी. जबकि हुई केवल 706 मि.मी. याने 27 प्रतिशत कम। खैर ये तो सरकारी विभाग आपस में निपटेंगे। पर इस पूरे संदर्भ में एक पुरानी कहनात बरबस याद आ गई ‘हिसाब ज्यों का त्यों,आखिर कुनबा डूबा क्यों? किस्सा कुछ इस प्रकार है कि एक पटवारी साहब अच्छे ऊंचे-पूरे कद के थे और उनके साथ तीन-तीन छोटे बच्चे थे, पटवारी जी को एक नदी पार करनी थी, उन्होंने नदी की गहराई नापी, अपना और बच्चों के कद का हिसाब जोड़ा, औसत लगाया गुणा-भाग कर समाधान निकाला और निकाल पड़े नदी पार करने, नदी के दूसरे किनारे पर पहुंचे तो देखा कि पीछे एक बच्चा दिखाई नहीं दे रहा उसने बार-बार हिसाब लगाया, सोचा-विचारा, सिर खुजाया पर बच्चों के डूबने का कारण समझ न पाया और झल्ला कर बोल पड़ा ‘हिसाब ज्यों का त्यों, आखिर कुनबा डूबा क्यों?
लगभग यही कहानी मंत्रालय के वातानुकूलित कक्षों में दोहराई जा रही है, तालाब लबालब हैं, वर्षा भी सामान्य मात्रा में हुई है फिर भी सूखा क्यों पड़ रहा है, फसलोत्पादन में क्यों कमी है? किसान भाई किस बात पर हल्ला मचा रहे हैं? क्यों नष्ट हुई फसल का मुआवजा मांग रहे हैं?
वस्तुत: जो बात जानने और समझने की है उसका सार यह है कि फसल उत्पादन के लिये वर्षा कुल कितनी हुई उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि जितना कि फसल की मांग के अनुरूप वर्षा की उपलब्धता। बुआई के समय तेज वर्षा या कम वर्षा से बोये गये बीज का अंकुरण प्रभावित होता है और उससे उत्पादकता प्रभावित होती है। इसी प्रकार खरपतवार निकालने के समय लगातार वर्षा से निंदाई नहीं होने के कारण उत्पादकता प्रभावित होती है। फूल आते व दाना भरते समय भी बारिश की कमी या अधिकता का उत्पादन पर असर पड़ता है। निरंतर अतिवर्षा से भी सोयाबीन और दलहनी फसलें प्रभावित होती हैं।
राजधानी के जिले भोपाल में भी मौसम विभाग का सामान्य वर्षा होने का आकलन है परंतु यदि खेतों में सोयाबीन उत्पादकता की स्थिति का वर्तमान में आकलन करें तो बहुत से खेतों में कुल लागत की बात तो छोडिय़े, फसल कटाई के दाम की सोयाबीन भी नहीं उपज रही है।
यक्ष प्रश्न यही है कि जब वर्षा सामान्य मात्रा में हुई है, तालाबों में जलस्तर भी पर्याप्त है फिर सूखा क्यों? इस प्रश्न का समाधान कम से कम मंत्रालय में विराजमान लाल बुझक्कड़ों के पास तो नहीं है और उस पर भी सवाल यह कि आखिर में ये लाल बुझक्कड़ हैं कौन? वहां तो सभी ‘जानपाँडेÓ जमे हुए हैं। कागजों में सरकार की और विभाग की उपलब्धियों का बखान कर रहे हैं, भले ही मैदानी स्तर पर वास्तविकता कुछ और ही हो। ऐसे हालातों के कारण ही मध्यप्रदेश शासन निरंतर कर्ज लेने को मजबूर है। लोक लुभावन योजनाओं का खाका गढऩे में और शासकीय खजाने को चूना लगाने में प्रवीण अफसरों से उम्मीद लगाये जमीनी स्तर पर सूखे की त्रासदी झेलने को विवश है।
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