Crop Cultivation (फसल की खेती)

मूंगफली के प्रमुख रोग एवं प्रबंधन

Share

मूंगफली तिलहनी फसलों के रूप में ली जाने वाली प्रमुख फसल है। मूंगफली की खेती मुख्य रुप से रेतीली एवं कछारी भूमियों में सफलता पूर्वक की जाती है। मूंगफली के दानों से 40-45 प्रतिशत तेल प्राप्त होता है जो कि प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है। मूंगफली की फलियों का प्रयोग वनस्पति तेल एवं खलियों आदि के रुप में भी किया जाता है। मूंगफली भारत की मुख्य एवं महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है। यह गुजरात, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू तथा कर्नाटक राज्यों में सबसे अधिक उगाई जाती है। अन्य राज्य जैसे मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान तथा पंजाब में भी यह काफी महत्वपूर्ण फसल मानी जाने लगी है। भारत में मूंगफली 6.6 मि. हे. में उगाई जाती है तथा 6.5 मिलियन टन उत्पादन होता है। उत्तर प्रदेश में मूंगफली की खेती बिना सिंचाई के ही की जाती है। उत्तर प्रदेश के लखनऊ मण्डल में मूंगफली की खेती सबसे आगे है और उत्तर प्रदेश के हदोई जिले में मूंगफली की खेती अधिक क्षेत्रफल में होती है। उसके बाद क्रमश: बदायूं, सीतापुर, मुरादाबाद, बरेली, फर्रूखाबाद और एटा का नम्बर आता है तथा अधिक क्षेत्रफल में मूंगफली उगाने वाले अन्य जिले क्रमश: उन्नाव, खीरी, बिजनौर, शाहजहाँपुर, मैनपुरी तथा सहारनपुर है। 

प्रमुख तत्व एवं उपयोग :

मूंगफली वस्तुत पोषक तत्वों की अप्रतिम खान है। प्रकृति ने भरपूर मात्रा में इसे विभिन्न पोषक तत्वों से सजाया-संवारा है। 100 ग्राम कच्ची मूंगफली में 1 लीटर दूध के बराबर प्रोटीन होता है। मूंगफली में प्रोटीन की मात्रा 25 प्रतिशत से भी अधिक होती है, जबकि मांस, मछली और अंडों में उसका प्रतिशत 10 से अधिक नहीं।

250 ग्राम मूँगफली के मक्खन से 300 ग्राम पनीर, 2 लीटर दूध या 15 अंडों के बराबर ऊर्जा की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है। मूंगफली पाचन शक्ति बढ़ाने में भी कारगर है। 250 ग्राम भूनी मूंगफली में जितनी मात्रा में खनिज और विटामिन पाए जाते हैं, वो 250 ग्राम मांस से भी प्राप्त नहीं हो सकता है ।

रोग एवं प्रबंधन: 

टिक्का रोग :

भारत में मूंगफली का यह एक मुख्य रोग है और मूंगफली की खेती वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत में उगाई जाने वाली मूंगफली की समस्त किस्में इस रोग के लिये सहनशील है। फसल पर इस रोग का प्रकोप उस समय होता है जब पौधे एक या दो माह के होते हैं। इस रोग में पत्तियों के ऊपर बहुत अधिक धब्बे बनने के कारण वह शीघ्र ही पकने के पूर्व गिर जाती है, जिससे पौधों से फलियां बहुत कम और छोटी प्राप्त होती हैं।

रोग के लक्षण :

मूंगफली का यह रोग बहुत महत्वपूर्ण है और इस रोग से लगभग 10-50 प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है। यह मूंगफली का रोग सबसे भयानक है तथा यह रोग फफूंदी के द्वारा फैलता है।

इस रोग का मुख्य लक्ष्ण सबसे पहले पत्तियों पर लगता है और यह रोग 3-6 सप्ताह की पुरानी पत्तियों में इस रोग का प्रकोप होने पर छोटे-छोटे गहरे कत्थई रंग के गोल-गोल धब्बे उत्पन्न हो जाते हैं। और कुछ पत्तियां पीली भी पढ़ जाती हैं जब रोग का प्रकोप बढ़ जाता है फिर पत्तियाँ धीरे-धीरे गिरने लगती हैं तथा इस रोग के लगने पर मूंगफली  का उत्पादन काफी कम हो जाता है।

रोकथाम

  • मूंगफली के पुराने संक्रमित अवशेषों को मिट्टी में दबा दें।
  • उर्वरक एनपीके और जिप्सम का प्रयोग करें, इसके उपयोग से रोग कम लगता है।
  • कैप्टान कवकनाशी रसायन से (3 ग्राम/किलोग्राम बीज) को उपचारित करें।
  • नीम के दानों और लहसुन के बीजों का रस निकालकर ञ्च10 प्रतिशत के हिसाब से छिड़काव करें।
  • कार्बेन्डाजिम रसायन ञ्च200 ग्राम तथा 100 लीटर पानी में मिलाकर निरंतर 15-15 दिन के अंतर पर छिड़काव करें।

रोग के लक्षण :

मूंगफली के इस रोग से पत्तियों के प्रभावित भाग की बाह्य त्वचा फटने लगती है । तथा यह धीरे-धीरे धब्बों के रूप में और पर्णवृन्त एवं वायवीय भाग पर भी देखे जा सकते हैं । यह रोग उग्र होने पर पत्तीयां झुलसकर गिरने लगती हैं । और फल्लियों के दाने चपटे व विकृत हो जाते है।

वैसे तो इस रोग के मुख्य लक्षण पत्तियों के निचली सतह पर अधिकतर लाल रंग के धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं और यह धब्बे बाद में आगे चलकर आपस में मिल जाते हैं जिसके कारण पत्तियाँ सूख जाती हैं।

गेरुई रोग :

मूंगफली के गेरुई रोग से लगभग 14-32 प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है । और यह रोग वहां लगता है जहां पर मूंगफली की खेती की जाती है तथा यह रोग फफंूदी के द्वारा फैलता है। सर्व प्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर ऊतकक्षयी धब्बों के रुप में दिखाई पड़ते हैं।

इस रोग के कारण मूंगफली की पैदावार में कमी हो जाती है, बीजों में तेल की मात्रा भी घट जाती है।

रोकथाम

  • रोगरहित प्रजातियों की बुवाई करें।
  • मूंगफली के बीज को कवकनाशी थिरम या कैप्टान से ञ्च3-4 ग्राम/किलोग्राम बीज को उपचार करें।
  • इस रोग की रोकथाम के लिये फसल पर बाविस्टीन का 0.05 प्रतिशत के हिसाब से छिड़काव करें।

रोजेट रोग एवं लक्षण :

यह एक प्रकार विषाणु द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है। और यह रोग एक कीट द्वारा फैलता है तथा इस रोग के प्रभाव से पौधे छोटे एवं बोने रह जाते हैं और उनका रुप रोजेट जैसा हो जाता है। इस रोग के लगने पौधे एवं पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं बाद में मौजेक जैसा रुप दिखाई देता है।

साथ पत्तियों में ऊतकों का रंग पीला पडऩा प्रारम्भ हो जाता है। यह रोग सामान्य रूप से विषाणु फैलाने वाली माहू से फैलता है

रोकथाम

  • मूँगफली के नये एवं पुराने संक्रमित अवशेषों को उखाडकर मिट्टी में दबा देना चाहिए।
  • इस बीमारी का रोकथाम के लिये कुछ रोग-रोधी किस्मों को बोना चाहिए।
  • कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग करना चाहिए जैसे- मेटासिस्टाक्स 25 ई.सी. की 1 लीटर मात्रा को 750-800 लीटर पानी में घोलकर हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

जड़ सडऩ रोग एवं लक्षण :

यह रोग मृदा में पाई जाने वाली फफूंदी से फैलता है। भूमि में इस फफूंद रोग के स्पोर कई वर्षों तक रह सकते हैं। पौधों की जड़ों में तथा मृदा तल के नजदीक सफेद धागे के आकार की रचनायें पायी जाती हैं। बाद में ये पौधे के अन्य भागों को भी प्रभावित करती हैं तथा सरसों के दाने के आकार के भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। और बाद में पत्तियां पीली पड़ जाती हैं जो बाद में भूरे रंग की होकर गिर जाती हैं।

रोकथाम

  • ग्रीष्म कालीन (मई-जून) के महीनों में गहरी जुताई करें।
  • बीज शोधन करें ।
  • लम्बी अवधि वाले फसल चक्र अपनायें ।
  • रोग से प्रभावित पौधों को इकठ्ठा करके जला दें।
  • बीज की फफूंदनाशक दवा जैसे-थायरम या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।
Share
Advertisements

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *