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मूंगफली खूब फली

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भारत विश्व में मूंगफली के क्षेत्रफल व उत्पादन की दृष्टि से प्रथम स्थान पर है। हमारे देश में मूंगफली की कम उत्पादकता का कारण, इसकी खेती असिंचित व अनुपजाऊ भूमि में होना है। साथ ही सूखे की अधिकता व अधिक अवधि में पककर तैयार होना है। गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं पंंजाब राज्यों में मूंगफली की खेती लगभग 6.86 मिलियन हेक्टेयर में की जाती है।
खेत की तैयारी
मूंगफली की खेती के लिए लगभग 70-90 फा. तापमान एवं ठण्डी रात फसल परिपक्वता के समय तथा वार्षिक वर्षा 50-125 सेमी होनी चाहिए। इसका निर्माण भूमि में होता है अत: इसकी फसल के लिए अच्छी जल निकास वाली, भुरभुरी दोमट एवं रेतीली दोमट, कैल्शियम और मध्यम जैव पदार्थों युक्त मृदा उत्तम रहती है। इसकी फसल के लिए मृदा की पीएच 5-8.5 उपयुक्त रहता है। सामान्यत: 12 से 15 सेमी गहरी जुताई उपयुक्त होती है। गहरी जुताई करने से इसकी सुईयां जमीन में काफी गहरी चली जाती है। जिससे खुदाई में काफी परेशानी आती है। एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से फिर देशी हल या हैरों से 2-3 जुताई करके खेत को बुवाई के लिए समतल कर लें।
बीज की मात्रा एवं बुवाई
मूंगफली की बुवाई का उपयुक्त समय सिंचित क्षेत्र में जून प्रथम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह है।
बीज
झुमका किस्म का 100 किलोग्राम बीज (गुली) एवं विस्तारी किस्म एवं अद्र्ध विस्तारी किस्म का 60-80 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करें। झुमका किस्म में कतार से कतार की दूरी 30 सेमी एवं पौधों से पौधों में दूरी 10 सेमी रखी जाती है। विस्तारी किस्मों व अद्र्ध-विस्तारी किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेमी एवं पौधों से पौधों की दूरी 15 सेमी उपयुक्त होती है।
किस्म
एसबी-11, जे.एल-24, जे.38(जीजी-7),टीएजी-24,जीजी-2,आरजी-138,आरजी-141, कादरी-3 ,एचएनजी-10, आरएसबी -87,एम-13,एम -335,एमए-10, चन्द्रा, सीएसजीएम 84-1 (कौशल)
बीजोपचार
बीज को कवक एवं जीवाणु इत्यादि के प्रभाव से बचाने के लिए क्रमश: कवकनाशी (3 ग्राम थाईरम या कार्बेन्डाजिम या 2 ग्राम मेंकोजेब से प्रति किलो बीज की दर) से, कीटनाशी (एक लीटर क्लोरोपाइरीफास 20 ईसी से प्रति 40 किग्रा बीज की दर) से और अंत में राइजोबियम कल्चर एवं फास्फेट विलेयक जीवाणु खाद से उपचारित करें।
उर्वरक
मूंगफली के लिए 43 किग्रा यूरिया, 250 किग्रा स्फूर एवं 100 किग्रा म्यूरेट पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग होना चाहिए। फास्फोरस, पोटाश एवं आधी मात्रा नत्रजन की भूमि में अंतिम जुताई के साथ लाईनों में बुवाई कर दें।
सिंचाई
फसल में शाखा बनते, फूल निकलते एवं फली का विकास होते समय सिंचाई देना नितांत आवश्यक है क्योंकि ये अवस्थाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। इन अवस्थाओं पर नमी की कमी पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। फव्वारा सिंचाई पद्धति जायद मूंगफली के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है।

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